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कविता

सुनो

कुमार अनुपम


हम भूगोल के दो मुहाने हैं इस वक्त

हमारे बीच थोड़ी-सी धरती है थोड़ा इंतजार

इतिहास का ढेर सारा पुरा-प्रेम थोड़ा-सा आकाश

थोड़ी-सी हवा है बहुत-सी परतोंवाली

अभी हमें फलों-सा धैर्य धरना है

और परिपक्व हो टपक जाना है एक दूसरे की झोली में

जैसे सीप में टपकता है स्वाति

 

हमारे पास अपना रस है अपना खनिज

इसी के बल हमें चढ़ने हैं आकांक्षाओं के शिखर

जैसे पहाड़ चढ़ती चीटियाँ दीखती नहीं

कई बार बिलकुल ऐसे ही चुपचाप

अन्तःसलिला की तरह देखकर सही जमीन फूट पड़ना है

 

हम पुच्छल तारे नहीं जो अपनी अल्पजीवी नियति भर

चमक कर बुझ जाते हैं

हमें सिरिजनी है

एक दूसरे के अँधेरों से प्रकाश की नई संतति

जैसे संलग्न हैं बहुत से लोग इस अँधेरे समय में भी बिलकुल चुपचाप

 

वैसे सुनो

अभी लेटा हूँ जब पेट के बल

महसूस हो रहा है बिलकुल स्पष्ट

कि धरती एक स्त्री है कामिनी।


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